April 29, 2016 No.2
https://www.facebook.com/mehtarahulc/posts/10153453698461922
11 वीं शताब्दी में जब महमूद गजनी सोना लूटने के लिए सोमनाथ मंदिर की और बढ़ रहा था तो मंदिर के पुजारीयों को सलाह दी गयी कि स्वर्ण भण्डार को शहर के नागरिकों में बाँट दो। यदि ऐसा कर दिया जाता तो ग़जनी के सोमनाथ आने का उद्देश्य ही खत्म हो जाता। और यदि तब भी वह सोमनाथ पहुँचता तो उसे सोना हासिल नहीं होता। क्योंकि एक एक व्यक्ति से सोना लूटना संभव नहीं था। लेकिन सोमनाथ के पुजारियों ने ऐसा नहीं किया और गजनी ने आकर वहाँ ग़दर मचा दिया। उसने मंदिर को ध्वस्त किया, श्रद्धालुओं व पुजारियों का कत्ले आम किया और सोने के साथ शिवलिंग के भी टुकड़े करके साथ ले गया।
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सोमनाथ मंदिर में इतना सोना आया कहाँ से था ? क्योंकि मंदिर तो कोई व्यापारिक संस्था नहीं है, जो मुनाफा कमा कर सोना अर्जित करें। जाहिर है यह सोना समुदाय के श्रद्धालुओं द्वारा दिए गए दान से एकत्र हुआ था। फिर पुजारियों और मंदिर प्रबंधकों ने यह सोना फिर से समुदाय में बाँटने से इंकार क्यों कर दिया ?
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मान लीजिए कि आप के सरकारी बैंक के मेनेजर है और आपको पता है कि दुश्मन की सेना आपके बैंक को लूटने के लिए बढ़ रही है। बचने का कोई उपाय नहीं। आपके पास सेना नहीं है और न ही बैंक की तिजोरी में पड़े सोने को छिपाने की कोई सुरक्षित जगह है और आप ही निर्णयकर्ता है तो आप क्या करेंगे ? तब आपके पास दो ही विकल्प बचते है -- १) या तो आप इस संपत्ति को दुश्मन के हाथों में जाने दें या २) समुदाय में बाँट दे। बैंक में जमाकर्ताओं की गयी राशि हो सकती है, जो कि बैंक की देनदारी है। लेकिन मंदिर के स्वामियों की कोई देनदारी नहीं थी। फिर भी उन्होंने इस संपत्ति को मंदिर में रखने का जोखिम क्यों उठाया ? उन्हें एक कमजोर उम्मीद थी कि यदि सोना बच गया तो यह उनके पास बना रहेगा। और इस आशा में वे यह जोखिम उठाने को तैयार हो गए !!
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दरअसल तब मंदिरों पर स्वामित्व मंदिर के पुजारियों/महन्तो आदि का था। समुदाय का उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। इन महन्तो को समुदाय के नागरिकों द्वारा न तो नियुक्त किया जाता था न ही पद से हटाया जा सकता था। महन्त उत्तराधिकार द्वारा पद ग्रहण करते थे और आजीवन अपने पद पर बने रहते थे। इस व्यवस्था के कारण मंदिर प्रमुख दान से प्राप्त संपत्ति का उपयोग सामुदायिक कार्यों में करने की जगह उनका संग्रहण करते थे। इस तरह जहां मंदिरों द्वारा किये जा रहे परोपकार कार्यों में कमी आई और समुदाय का क्षरण हुआ वही दूसरी और विपुल सम्पदा होने के कारण मंदिर आक्रमणकारियों के निशाने पर आ गए।
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1000 वर्ष बाद आज भी धर्म के प्रशासन में यह व्यवस्थागत दोष मौजूद होने से हिन्दू धर्म का प्रशासन निरन्तर कमजोर हो रहा है और अन्य धर्मो की तुलना में हिन्दू धर्म पिछड़ता जा रहा है।
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समाधान - हिन्दू धर्म के प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए हमने जो प्रक्रिया प्रस्तावित की है, उसे गैजेट में प्रकाशित करने से हिन्दू धर्म को भी सिक्ख धर्म के समान मजबूत बनाया जा सकता है। इस प्रस्तावित ड्राफ्ट का समर्थन करने के लिए निचे दिए गए लिंक को क्लिक करके इसे पढ़े और यदि आप इसका समर्थन करते है तो इसके कमेंट बॉक्स में 'I support' लिखें। साथ ही अपने सांसद को एसएमएस द्वारा आदेश भेजे कि इस क़ानून ड्राफ्ट को गैजेट में प्रकाशित किया जाए।
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ड्राफ्ट का लिंक ---https://web.facebook.com/ProposedLawsHindi/posts/570764579768407
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11 वीं शताब्दी में जब महमूद गजनी सोना लूटने के लिए सोमनाथ मंदिर की और बढ़ रहा था तो मंदिर के पुजारीयों को सलाह दी गयी कि स्वर्ण भण्डार को शहर के नागरिकों में बाँट दो। यदि ऐसा कर दिया जाता तो ग़जनी के सोमनाथ आने का उद्देश्य ही खत्म हो जाता। और यदि तब भी वह सोमनाथ पहुँचता तो उसे सोना हासिल नहीं होता। क्योंकि एक एक व्यक्ति से सोना लूटना संभव नहीं था। लेकिन सोमनाथ के पुजारियों ने ऐसा नहीं किया और गजनी ने आकर वहाँ ग़दर मचा दिया। उसने मंदिर को ध्वस्त किया, श्रद्धालुओं व पुजारियों का कत्ले आम किया और सोने के साथ शिवलिंग के भी टुकड़े करके साथ ले गया।
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सोमनाथ मंदिर में इतना सोना आया कहाँ से था ? क्योंकि मंदिर तो कोई व्यापारिक संस्था नहीं है, जो मुनाफा कमा कर सोना अर्जित करें। जाहिर है यह सोना समुदाय के श्रद्धालुओं द्वारा दिए गए दान से एकत्र हुआ था। फिर पुजारियों और मंदिर प्रबंधकों ने यह सोना फिर से समुदाय में बाँटने से इंकार क्यों कर दिया ?
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मान लीजिए कि आप के सरकारी बैंक के मेनेजर है और आपको पता है कि दुश्मन की सेना आपके बैंक को लूटने के लिए बढ़ रही है। बचने का कोई उपाय नहीं। आपके पास सेना नहीं है और न ही बैंक की तिजोरी में पड़े सोने को छिपाने की कोई सुरक्षित जगह है और आप ही निर्णयकर्ता है तो आप क्या करेंगे ? तब आपके पास दो ही विकल्प बचते है -- १) या तो आप इस संपत्ति को दुश्मन के हाथों में जाने दें या २) समुदाय में बाँट दे। बैंक में जमाकर्ताओं की गयी राशि हो सकती है, जो कि बैंक की देनदारी है। लेकिन मंदिर के स्वामियों की कोई देनदारी नहीं थी। फिर भी उन्होंने इस संपत्ति को मंदिर में रखने का जोखिम क्यों उठाया ? उन्हें एक कमजोर उम्मीद थी कि यदि सोना बच गया तो यह उनके पास बना रहेगा। और इस आशा में वे यह जोखिम उठाने को तैयार हो गए !!
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दरअसल तब मंदिरों पर स्वामित्व मंदिर के पुजारियों/महन्तो आदि का था। समुदाय का उन पर कोई नियंत्रण नहीं था। इन महन्तो को समुदाय के नागरिकों द्वारा न तो नियुक्त किया जाता था न ही पद से हटाया जा सकता था। महन्त उत्तराधिकार द्वारा पद ग्रहण करते थे और आजीवन अपने पद पर बने रहते थे। इस व्यवस्था के कारण मंदिर प्रमुख दान से प्राप्त संपत्ति का उपयोग सामुदायिक कार्यों में करने की जगह उनका संग्रहण करते थे। इस तरह जहां मंदिरों द्वारा किये जा रहे परोपकार कार्यों में कमी आई और समुदाय का क्षरण हुआ वही दूसरी और विपुल सम्पदा होने के कारण मंदिर आक्रमणकारियों के निशाने पर आ गए।
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1000 वर्ष बाद आज भी धर्म के प्रशासन में यह व्यवस्थागत दोष मौजूद होने से हिन्दू धर्म का प्रशासन निरन्तर कमजोर हो रहा है और अन्य धर्मो की तुलना में हिन्दू धर्म पिछड़ता जा रहा है।
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समाधान - हिन्दू धर्म के प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए हमने जो प्रक्रिया प्रस्तावित की है, उसे गैजेट में प्रकाशित करने से हिन्दू धर्म को भी सिक्ख धर्म के समान मजबूत बनाया जा सकता है। इस प्रस्तावित ड्राफ्ट का समर्थन करने के लिए निचे दिए गए लिंक को क्लिक करके इसे पढ़े और यदि आप इसका समर्थन करते है तो इसके कमेंट बॉक्स में 'I support' लिखें। साथ ही अपने सांसद को एसएमएस द्वारा आदेश भेजे कि इस क़ानून ड्राफ्ट को गैजेट में प्रकाशित किया जाए।
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