July 12, 2015
https://www.facebook.com/mehtarahulc/posts/10152907293291922
https://www.facebook.com/mehtarahulc/posts/10152907293291922
हिन्दू धर्म के पतन का कारण सिर्फ़ और सिर्फ़ हिंदुओ की गंदी और कमजोर मंदिर प्रबंधन की व्यवस्था तथा ईसाई मुसलमानो की मजबूत चर्च और मस्ज़िद प्रबंधन की व्यवस्था है और जो नेता लोग हिंदुओ की गंदी व्यवस्था मे फल फूल रहे हैं वो हमेशा हिंदुओ के पतन के लिये एकता की कमी को जिम्मेवार ठहराते हुए उन्हे कोसते हैंमगर व्यवस्था को सुधारने का समर्थन नहीं करते । इस लेख में विस्तार से इस विषय को समझाया गया है तथा इसका समाधान भी बताया गया है कृपया ध्यान से पढें।
.
मस्जिद चर्च और गुरुद्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होते हैं और उनमे उत्तराधिकारी बनाने की परंपरा नहीं होती और ईमाम एवं पादरी भी अस्थायी रूप से नियुक्त होते हैं।
.
चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड नामक एक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय में चर्च के पैसों के वितरण सम्बन्धी सभी निर्णय (फैसला) पादरी (priests) लेते हैं। परन्तु ये पादरी प्रधानमंत्री / सांसदों के द्वारा रखे गये होते हैं तथा कोई भी आपराधिक कार्य करने पर ज्यूरी के कंट्रोल (नियंत्रण) में होते हैं । साथ हीं चर्च की संपत्ति पर उनका कोई उत्तराधिकार (वारिस) नही होता। अन्य सभी प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों में स्थानीय बुजुर्गों द्वारा पादरी नियुक्त किया जाता है। इसीलिए चर्च के पैसों पर उत्तराधिकार (वारिस) लागू नही होता। और इसलिए प्रोटेस्टेंट चर्चों में धन इकठ्ठा करने की ओर झुकाव नही पाया जाता । और वे इस धन को समुदाय के निर्माण व विकास में उपयोग करते हैं। कैथोलिकों में चर्च के पैसों के समाज में बांटने सम्बन्धी निर्णय पादरी द्वारा लिए जाते हैं, जो कि पोप के अधीन होता है। अगले पोप के नौकरी पर रखने के लिए 100-200 सर्वाधिक पुराने पादरी जिन्हें कार्डिनल्स कहते हैं, मिलकर करते हैं। उत्तराधिकार यहाँ भी नही होता, चूँकि पादरी शादी नहीं कर सकता तथा उनमें गुरु प्रथा भी नही होती। मतलब वर्तमान पादरी द्वारा अगले पादरी की नियुक्ति नहीं की जाती। इसीलिए कैथोलिक चर्चों में भी संपत्ति संग्रह नही होता, तथा ये भी दान में मिले पैसों को समुदाय के निर्माण व विस्तार पर खर्च करते हैं।
.
मस्जिदों में ईमामो का एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफ़र होता रहता है। और यह उत्तराधिकार के आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर है। और मस्जिद का मैनेजमेंट स्थानीय सम्मानित बुजुर्ग लोग करते हैं और उनकी ट्रस्टी के रूप में नियुक्ति भी सीमित समय के लिये होती है.. समय समय पर दान का पैसा किस चीजों पर खर्च हुआ इसका हिसाब किताब स्थानीय लोग पब्लिक मीटिंग में लेते हैं.और गल्फ़ कंट्रीज़ से जो पैसा आता है उस देश की सरकारें भी इस बात के प्रति सजग होती हैं ताकि पैसा इस्लाम के प्रचार प्रसार मे खर्च हो!! साथ ही साथ ईमाम/काज़ी इत्यादि लोगों के आपसी विवादों को भी सुलझाने का काम करते हैं जिससे कि लोगों के बीच विवाद नहीं बढता है.यानि कि हिंदुत्ववादियों की भाषा मे बोलें तो उनमे "एकता रहती है"और मस्जिदों की इस मजबूत व्यवस्था को मुस्लिम राजाओ ने सैकडों साल तक भारत मे मजबूत बनाये रखा ताकि अधिक से अधिक लोग इस्लाम स्वीकार करें. यही कारण रहा कि अंग्रेज राज आने पर भी यह व्यवस्था बरकरार रही क्योंकि मुसलमान जनता यह समझती थी कि इस व्यवस्था से उसका फ़ायदा है और इस व्यवस्था को तोडने के प्रत्येक प्रयास के खिलाफ़ वह उठ खडी होती.और यह व्यवस्था आज भी बरकरार है।
.
उसी प्रकार गुरुद्वारों के महन्तों का चुनाव सिख जनता के द्वारा नियमित रूप से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ , दिल्ली गुरुद्वारा ऐक्ट १९७० इत्यादि के अंतर्गत किया जाता हैगुरुद्वारों की व्यवस्था भी शुरु से प्रजातांत्रिक रही है जिसका लाभ सिख जनता को मिलता रहा है। १९२० के आसपास जब अंग्रेजों ने अपने पिठ्ठू उदासी महंतों को अकाल तख्त की गद्दी पर बिठा दिया तब उसके खिलाफ़ सिख जनता ने विद्रोह करके ब्रिटिश से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ पास करवाया जिसमे प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कानूनी संरक्षण मिल गया जो कि पहले नहीं था.यही कारण है कि जो भी धन मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारे मे जाता है उसका उपयोग अपने समुदाय के लोगों को धर्म की शिक्षा अथवा स्कूल खोलने,वृद्धों की देखभाल करने गरीबों की मदद तथा युद्ध अथवा दंगे मे मारे गये लोगों के परिवारों की देखरेख के लिए होता है। नतीजा ये है कि उनके समुदाय के लोगों का अधिक से अधिक जुडाव मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारों से होता है। वो लोग नियमित रूप से वहां इकट्ठे होते हैं तथा वो लोग मस्जिद चर्च गुरुद्वारे को मह्ज़ एक प्रार्थना स्थल के रूप में नहीं अपितु अपनी हितैषी संस्था के रूप में भी देखती है। इसी कारंण ये होता है कि ईमाम पादरी महंत जो कि अस्थायी रूप से चुने जाते हैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए जनता को प्रार्थना के लिये इकट्ठे होने समय सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ऐसे नियमों तथा दूसरी घटनाओ (जैसे किसी हिंदूवादी संस्था द्वारा उनके समुदाय के लोगों की घर वापसी इत्यादि) के प्रति जागरूक भी करते रहते हैं जिनसे उनके समुदाय पर प्रभाव पडने वाला हो। और चूंकि जनता उन्हे अपने हितैषी के रूप में देखती है इसी कारण उनकी हिदायतों पर ध्यान भी देती है।और उनके समुदाय के लोग युद्ध तथा सांप्रदायिक दंगों इत्यादि मे मारे जाने से भी नहीं डरते क्योंकि वो जानते हैं कि उनके मरे पीछे उनके परिवार का पालन दान के पैसों से अच्छी तरह होगा। और उनका समुदाय सशक्त बना रहता है।
.
अब दूसरी तरफ़ हम हिंदू मंदिरों की व्यवस्था देखें तो वहां दान और चढावे का पूरा पैसा महंतों की सम्पत्ति बनकर रहता है।महन्तो पुजारियों की नियुक्ति मे जनता की कोई भागीदारी नहीं।और वहां पीढी दर पीढी उत्तराधिकार चलता है। इसी कारण से वो लोग पैसा घर तो नहीं ले जाते परंतु मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर के उनको गहने बना कर पहना देते हैं और इस प्रकार से जमाखोरी करते हैं ताकि उनके आने वाली पीढी ऐश करे। और समाज के अतिनिम्न वर्ग के लोग जिन्हे अतिशूद्र भी कहा जा सकता है उनका प्रवेश तक वर्जित कर दिया मंदिरों मे क्योंकि वो लोग दान की रकम नहीं ला सकते |
मस्जिद चर्च और गुरुद्वारा व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होते हैं और उनमे उत्तराधिकारी बनाने की परंपरा नहीं होती और ईमाम एवं पादरी भी अस्थायी रूप से नियुक्त होते हैं।
.
चर्च ऑफ़ इंग्लैण्ड नामक एक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय में चर्च के पैसों के वितरण सम्बन्धी सभी निर्णय (फैसला) पादरी (priests) लेते हैं। परन्तु ये पादरी प्रधानमंत्री / सांसदों के द्वारा रखे गये होते हैं तथा कोई भी आपराधिक कार्य करने पर ज्यूरी के कंट्रोल (नियंत्रण) में होते हैं । साथ हीं चर्च की संपत्ति पर उनका कोई उत्तराधिकार (वारिस) नही होता। अन्य सभी प्रोटेस्टेंट सम्प्रदायों में स्थानीय बुजुर्गों द्वारा पादरी नियुक्त किया जाता है। इसीलिए चर्च के पैसों पर उत्तराधिकार (वारिस) लागू नही होता। और इसलिए प्रोटेस्टेंट चर्चों में धन इकठ्ठा करने की ओर झुकाव नही पाया जाता । और वे इस धन को समुदाय के निर्माण व विकास में उपयोग करते हैं। कैथोलिकों में चर्च के पैसों के समाज में बांटने सम्बन्धी निर्णय पादरी द्वारा लिए जाते हैं, जो कि पोप के अधीन होता है। अगले पोप के नौकरी पर रखने के लिए 100-200 सर्वाधिक पुराने पादरी जिन्हें कार्डिनल्स कहते हैं, मिलकर करते हैं। उत्तराधिकार यहाँ भी नही होता, चूँकि पादरी शादी नहीं कर सकता तथा उनमें गुरु प्रथा भी नही होती। मतलब वर्तमान पादरी द्वारा अगले पादरी की नियुक्ति नहीं की जाती। इसीलिए कैथोलिक चर्चों में भी संपत्ति संग्रह नही होता, तथा ये भी दान में मिले पैसों को समुदाय के निर्माण व विस्तार पर खर्च करते हैं।
.
मस्जिदों में ईमामो का एक जगह से दूसरी जगह ट्रांसफ़र होता रहता है। और यह उत्तराधिकार के आधार पर नहीं अपितु योग्यता के आधार पर है। और मस्जिद का मैनेजमेंट स्थानीय सम्मानित बुजुर्ग लोग करते हैं और उनकी ट्रस्टी के रूप में नियुक्ति भी सीमित समय के लिये होती है.. समय समय पर दान का पैसा किस चीजों पर खर्च हुआ इसका हिसाब किताब स्थानीय लोग पब्लिक मीटिंग में लेते हैं.और गल्फ़ कंट्रीज़ से जो पैसा आता है उस देश की सरकारें भी इस बात के प्रति सजग होती हैं ताकि पैसा इस्लाम के प्रचार प्रसार मे खर्च हो!! साथ ही साथ ईमाम/काज़ी इत्यादि लोगों के आपसी विवादों को भी सुलझाने का काम करते हैं जिससे कि लोगों के बीच विवाद नहीं बढता है.यानि कि हिंदुत्ववादियों की भाषा मे बोलें तो उनमे "एकता रहती है"और मस्जिदों की इस मजबूत व्यवस्था को मुस्लिम राजाओ ने सैकडों साल तक भारत मे मजबूत बनाये रखा ताकि अधिक से अधिक लोग इस्लाम स्वीकार करें. यही कारण रहा कि अंग्रेज राज आने पर भी यह व्यवस्था बरकरार रही क्योंकि मुसलमान जनता यह समझती थी कि इस व्यवस्था से उसका फ़ायदा है और इस व्यवस्था को तोडने के प्रत्येक प्रयास के खिलाफ़ वह उठ खडी होती.और यह व्यवस्था आज भी बरकरार है।
.
उसी प्रकार गुरुद्वारों के महन्तों का चुनाव सिख जनता के द्वारा नियमित रूप से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ , दिल्ली गुरुद्वारा ऐक्ट १९७० इत्यादि के अंतर्गत किया जाता हैगुरुद्वारों की व्यवस्था भी शुरु से प्रजातांत्रिक रही है जिसका लाभ सिख जनता को मिलता रहा है। १९२० के आसपास जब अंग्रेजों ने अपने पिठ्ठू उदासी महंतों को अकाल तख्त की गद्दी पर बिठा दिया तब उसके खिलाफ़ सिख जनता ने विद्रोह करके ब्रिटिश से सिख गुरुद्वारा ऐक्ट १९२५ पास करवाया जिसमे प्रजातांत्रिक व्यवस्था को कानूनी संरक्षण मिल गया जो कि पहले नहीं था.यही कारण है कि जो भी धन मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारे मे जाता है उसका उपयोग अपने समुदाय के लोगों को धर्म की शिक्षा अथवा स्कूल खोलने,वृद्धों की देखभाल करने गरीबों की मदद तथा युद्ध अथवा दंगे मे मारे गये लोगों के परिवारों की देखरेख के लिए होता है। नतीजा ये है कि उनके समुदाय के लोगों का अधिक से अधिक जुडाव मस्जिद चर्च अथवा गुरुद्वारों से होता है। वो लोग नियमित रूप से वहां इकट्ठे होते हैं तथा वो लोग मस्जिद चर्च गुरुद्वारे को मह्ज़ एक प्रार्थना स्थल के रूप में नहीं अपितु अपनी हितैषी संस्था के रूप में भी देखती है। इसी कारंण ये होता है कि ईमाम पादरी महंत जो कि अस्थायी रूप से चुने जाते हैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए जनता को प्रार्थना के लिये इकट्ठे होने समय सरकार द्वारा बनाए जाने वाले ऐसे नियमों तथा दूसरी घटनाओ (जैसे किसी हिंदूवादी संस्था द्वारा उनके समुदाय के लोगों की घर वापसी इत्यादि) के प्रति जागरूक भी करते रहते हैं जिनसे उनके समुदाय पर प्रभाव पडने वाला हो। और चूंकि जनता उन्हे अपने हितैषी के रूप में देखती है इसी कारण उनकी हिदायतों पर ध्यान भी देती है।और उनके समुदाय के लोग युद्ध तथा सांप्रदायिक दंगों इत्यादि मे मारे जाने से भी नहीं डरते क्योंकि वो जानते हैं कि उनके मरे पीछे उनके परिवार का पालन दान के पैसों से अच्छी तरह होगा। और उनका समुदाय सशक्त बना रहता है।
.
अब दूसरी तरफ़ हम हिंदू मंदिरों की व्यवस्था देखें तो वहां दान और चढावे का पूरा पैसा महंतों की सम्पत्ति बनकर रहता है।महन्तो पुजारियों की नियुक्ति मे जनता की कोई भागीदारी नहीं।और वहां पीढी दर पीढी उत्तराधिकार चलता है। इसी कारण से वो लोग पैसा घर तो नहीं ले जाते परंतु मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा कर के उनको गहने बना कर पहना देते हैं और इस प्रकार से जमाखोरी करते हैं ताकि उनके आने वाली पीढी ऐश करे। और समाज के अतिनिम्न वर्ग के लोग जिन्हे अतिशूद्र भी कहा जा सकता है उनका प्रवेश तक वर्जित कर दिया मंदिरों मे क्योंकि वो लोग दान की रकम नहीं ला सकते |
No comments:
Post a Comment